MHI-08, Lesson-6, भ्रमणकारी (खानाबदोश ) पशुचारण समाज || The E Nub ||

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भ्रमणकारी (खानाबदोश ) पशुचारण समाज

 


Ø आरम्भिक काल में मानव समुदाय का स्वरूप प्रत्यक्ष रूप से भ्रमणकारी था।

Ø यह अवस्था पशुचारी ग्राम्यता से जुड़ी थी,

Ø अतः उसे सामान्यतया भ्रमणकारी पशुचारिता कहा गया।

Ø उदय - अन्य प्राचीन मानव समाज संरचना की अवस्था की तरह ही बहुत कम जानकारी है।

Ø भ्रमणकारी ग्राम्यता की पुनर्रचना के लिए मानव विज्ञान तथा पुरावशेषों पर निर्भरता,

Ø प्राचीन मानवीय समाज जानवरों का शिकार अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए करता था।

Ø प्राचीन पशुपालन के सम्बन्ध में पुरावशेष प्रमाण आशिक तथा दुर्लभ हैं।

Ø पालतू जानवरों तथा जंगली जानवरों की अस्थियों में साफ-साफ अन्तर कर पाना काफी कठिन है।

Ø भोजन के रूप में किस प्रकार के पशुओं का शिकार करता था, इसके बारे में जानकारी स्पष्ट नहीं है।

Ø पशुओं को पालतू बनाने के बारे में सबसे प्राचीन प्रमाण कुत्ते के रूप में मिलते हैं,

Ø इसे भोजन के लिए पालतू नहीं बनाया गया होगा।

 


Ø पशुचारण समाज के उदय के निश्चित तथा प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं,

Ø यहाँ उस अवस्था की एक वैचारिक कल्पना की संरचना ही कर सकते हैं।

Ø आरम्भ से ही आखेटन समुदायों ने कुछ बड़े पशुओं को अपने भोजन आपूर्ति का केन्द्र बनाया होगा

Ø इस प्रक्रिया में भेड़ों तथा बकरियों का शिकार अधिक संख्या में हुआ।

Ø इस क्रिया में छोटे बच्चों तथा मादाओं को छोड़ दिया जाता होगा,

Ø जिससे भोजन आपूर्ति का स्रोत खत्म हो जाए।

Ø संभवतः इस क्रिया ने एक-दूसरे पर निर्भरता की भावना को बढ़ाया होगा।

Ø इस तरह पशुओं को बन्दी बनाकर तथा उनका चारा नियन्त्रित कर,

Ø उनके प्रजनन वंश में सुधार हेतु प्रक्रियाओं ने मानवों को लाभकारी पशुपालन के लिए प्रेरित किया होगा

 

Ø इसके अलावा तत्कालीन उपलब्ध बड़े-बड़े चरागाहों ने पशुचारण समाज के उदय में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

Ø पशुचारण प्रजातियों के अनेक पशुधनों का उत्पत्ति स्थल दक्षिण एशिया है।

Ø जहाँ अनेक प्रजातियाँ हैं, जैसे-हॉरस, कैटल, भैंसा, ऊँट, भेड़ तथा बकरियाँ

Ø इन पशुओं का मांस, खाल एवं अस्थि आदि के लिए शिकार किया जाता रहा होगा।

Ø इनमें से ज्यादातर पशु खुले तथा मैदानी पानी वाले क्षेत्रों को पसन्द करने वाले हैं।

 

Ø आखेटन संग्रहण समुदायों की भ्रमणशील प्रवृत्ति का निर्धारण मुख्यत - उनकी पशुचारण आवश्यकताओं तथा चरागाहों की आवश्यकताओं पर आधारित है।

Ø पशुओं के लिए चारे की खोज में उन्हें घूमना पड़ता रहा होगा।

Ø जहाँ पर्याप्त मात्रा में भोजन की पूर्ति बनी रहे।

Ø भोजन से तात्पर्य है पशुओं के मांस से, जो जलवायु की अनियमितताओं या प्रचण्डता से प्रभावित हो।

Ø पशुओं के झुण्डों के आकार अत्यधिक बड़े नहीं होते थे।

Ø पशुचारी समाज अपने पशुओं के झुण्डों को सीमित मात्रा में रखता था,

Ø जिससे वे ठीक से उनका पालन कर सकें।

Ø अनाज पैदा करने वाले अन्य पड़ोसी समूहों के साथ सहजीवी सम्बन्ध विकसित कर रहे थे।

 

Ø इतिहासकार रोमिला थापर -  कुछ पशुचारी भ्रमणशील थे,

Ø जबकि कुछ अन्य अर्ध स्थिर प्रकृति के थे।

Ø जो आवश्यकता पड़ने पर कृषि भी बहुत अल्प मात्रा में कर लेते थे।

Ø अधिकतर पशुचारी विनिमय प्रणाली पर विश्वास रखते थे

Ø इसी के द्वारा वे कृषकों एवं अन्य संगठनों के सम्पर्क में आए।

 

Ø भ्रमणशील पशुचारी समाज तथा स्थिर कृषीय समाज के बीच के सम्बन्ध दोनों के लिए लाभदायक थे।

Ø पशुचारी समाज के अनाज की माँग की पूर्ति कृषि समुदायों द्वारा पूरी की जाती थी,

Ø जिससे वे अपना अधिकांश समय पशु झुण्डों की देखभाल में बिता सकते थे।

Ø इसके बदले में कृषक समुदायों को भी बहुत सारा प्रतिफल मिलता था।

Ø जैसे - मांस, ऊन तथा खाल की नियमित आपूर्ति पशुचारी समाजों द्वारा की जाती थी।

Ø पशुपालन की व्यवस्था कृषि पर पूर्ण रूप से निर्भर थी।

Ø यह व्यवस्था समस्यापरक नहीं थी

Ø इतिहासकार भट्टाचार्य -  उपमहाद्वीप के कुछ स्थलों पर पाए जाने वाले नाँद तथा भस्म के टीले यह साबित करते हैं कि पशुओं की संख्या काफी बड़ी होती थी,

Ø इसलिए बारी-बारी से चरागाह प्रयोग में आते थे।

Ø  इस प्रकार विभिन्न संस्कृतियों से इनका परस्पर सम्बन्ध भी बना रहता था।

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By Vishwajeet Singh

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