भ्रमणकारी (खानाबदोश
) पशुचारण समाज
Ø आरम्भिक काल में मानव समुदाय का स्वरूप प्रत्यक्ष रूप से भ्रमणकारी था।
Ø यह अवस्था पशुचारी ग्राम्यता से जुड़ी थी,
Ø अतः उसे सामान्यतया भ्रमणकारी पशुचारिता कहा गया।
Ø उदय - अन्य प्राचीन मानव समाज संरचना की अवस्था की तरह ही बहुत कम जानकारी है।
Ø भ्रमणकारी ग्राम्यता की पुनर्रचना के लिए मानव विज्ञान तथा पुरावशेषों पर निर्भरता,
Ø प्राचीन मानवीय समाज जानवरों का शिकार अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए करता था।
Ø प्राचीन पशुपालन के सम्बन्ध में पुरावशेष प्रमाण आशिक तथा दुर्लभ हैं।
Ø पालतू जानवरों तथा जंगली जानवरों की अस्थियों में साफ-साफ अन्तर कर पाना काफी कठिन है।
Ø भोजन के रूप में किस प्रकार के पशुओं का शिकार करता था, इसके बारे में जानकारी स्पष्ट नहीं है।
Ø पशुओं को पालतू बनाने के बारे में सबसे प्राचीन प्रमाण कुत्ते के रूप में मिलते हैं,
Ø इसे भोजन के लिए पालतू नहीं बनाया गया होगा।
Ø पशुचारण समाज के उदय के निश्चित तथा प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं,
Ø यहाँ उस अवस्था की एक वैचारिक कल्पना की संरचना ही कर सकते हैं।
Ø आरम्भ से ही आखेटन समुदायों ने कुछ बड़े पशुओं को अपने भोजन आपूर्ति का केन्द्र बनाया होगा
Ø इस प्रक्रिया में भेड़ों तथा बकरियों का शिकार अधिक संख्या में हुआ।
Ø इस क्रिया में छोटे बच्चों तथा मादाओं को छोड़ दिया जाता होगा,
Ø जिससे भोजन आपूर्ति का स्रोत खत्म न हो जाए।
Ø संभवतः इस क्रिया ने एक-दूसरे पर निर्भरता की भावना को बढ़ाया होगा।
Ø इस तरह पशुओं को बन्दी बनाकर तथा उनका चारा नियन्त्रित कर,
Ø उनके प्रजनन व वंश में सुधार हेतु प्रक्रियाओं ने मानवों को लाभकारी पशुपालन के लिए प्रेरित किया होगा ।
Ø इसके अलावा तत्कालीन उपलब्ध बड़े-बड़े चरागाहों ने पशुचारण समाज के उदय में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
Ø पशुचारण प्रजातियों के अनेक पशुधनों का उत्पत्ति स्थल दक्षिण एशिया है।
Ø जहाँ अनेक प्रजातियाँ हैं, जैसे-हॉरस, कैटल, भैंसा, ऊँट, भेड़ तथा बकरियाँ।
Ø इन पशुओं का मांस, खाल एवं अस्थि आदि के लिए शिकार किया जाता रहा होगा।
Ø इनमें से ज्यादातर पशु खुले तथा मैदानी पानी वाले क्षेत्रों को पसन्द करने वाले हैं।
Ø आखेटन संग्रहण समुदायों की भ्रमणशील प्रवृत्ति का निर्धारण मुख्यत - उनकी पशुचारण आवश्यकताओं तथा चरागाहों की आवश्यकताओं पर आधारित है।
Ø पशुओं के लिए चारे की खोज में उन्हें घूमना पड़ता रहा होगा।
Ø जहाँ पर्याप्त मात्रा में भोजन की पूर्ति बनी रहे।
Ø भोजन से तात्पर्य है पशुओं के मांस से, जो जलवायु की अनियमितताओं या प्रचण्डता से प्रभावित न हो।
Ø पशुओं के झुण्डों के आकार अत्यधिक बड़े नहीं होते थे।
Ø पशुचारी समाज अपने पशुओं के झुण्डों को सीमित मात्रा में रखता था,
Ø जिससे वे ठीक से उनका पालन कर सकें।
Ø अनाज पैदा करने वाले अन्य पड़ोसी समूहों के साथ सहजीवी सम्बन्ध विकसित कर रहे थे।
Ø इतिहासकार रोमिला थापर - कुछ पशुचारी भ्रमणशील थे,
Ø जबकि कुछ अन्य अर्ध स्थिर प्रकृति के थे।
Ø जो आवश्यकता पड़ने पर कृषि भी बहुत अल्प मात्रा में कर लेते थे।
Ø अधिकतर पशुचारी विनिमय प्रणाली पर विश्वास रखते थे
Ø इसी के द्वारा वे कृषकों एवं अन्य संगठनों के सम्पर्क में आए।
Ø भ्रमणशील पशुचारी समाज तथा स्थिर कृषीय समाज के बीच के सम्बन्ध दोनों के लिए लाभदायक थे।
Ø पशुचारी समाज के अनाज की माँग की पूर्ति कृषि समुदायों द्वारा पूरी की जाती थी,
Ø जिससे वे अपना अधिकांश समय पशु झुण्डों की देखभाल में बिता सकते थे।
Ø इसके बदले में कृषक समुदायों को भी बहुत सारा प्रतिफल मिलता था।
Ø जैसे - मांस, ऊन तथा खाल की नियमित आपूर्ति पशुचारी समाजों द्वारा की जाती थी।
Ø पशुपालन की व्यवस्था कृषि पर पूर्ण रूप से निर्भर थी।
Ø यह व्यवस्था समस्यापरक नहीं थी ।
Ø इतिहासकार भट्टाचार्य - उपमहाद्वीप के कुछ स्थलों पर पाए जाने वाले नाँद तथा भस्म के टीले यह साबित करते हैं कि पशुओं की संख्या काफी बड़ी होती थी,
Ø इसलिए बारी-बारी से चरागाह प्रयोग में आते थे।
Ø इस प्रकार विभिन्न संस्कृतियों से इनका परस्पर सम्बन्ध भी बना रहता था।
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भ्रमणकारी (खानाबदोश ) पशुचारण समाज
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By Vishwajeet Singh