Lesson - 10 गाँधी का उदय Part-1
गाँधी के राजनीतिक दर्शन
1. भारतीय राजनीति में आने से पूर्व गाँधी 1893 से 1914 तक दक्षिण अफ्रीका में थे।
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दक्षिण अफ्रीका में औपनिवेशिक शासकों द्वारा स्थानीय लोगों का शोषण
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गाँधी ने नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष
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सहनशील प्रतिरोध और सविनय अवज्ञा आंदोलन के अपने दर्शन को विकसित किया,
2. गाँधी 1893 में युवा अटार्नी के रूप में दक्षिण अफ्रीका में एक कानूनी सलाहकार के पद पर कार्य करने के लिए डरबन गए।
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वहाँ भारतीयों की दुर्दशा से बहुत अधिक द्रवित हुए।
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वहाँ व्यक्तिगत अनुभव से पता चला कि - नस्लीय भेदभाव के कारण भारतीयों को अपमान और कष्ट का सामना करना पड़ रहा है।
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यहाँ उन्होंने सहनशील प्रतिरोध सत्याग्रह के प्रयोग के लिए अच्छा अवसर समझा।
3. नटॉल इंडियन कांग्रेस की स्थापना (1894)
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उन्होंने एक समाचार पत्र 'द इंडियन ओपिनियन' शुरू किया।
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उन्होंने नटॉल, ब्रिटेन तथा भारत की सरकारों को याचिकाओं का मसौदा देकर और इस समाचार पत्र में टिप्पणियों के माध्यम से भेदभाव के विरुद्ध स्थानीय सरकार पर दबाव डालने का प्रयास किया।
4. दक्षिण अफ्रीका में भारतीय व्यापारियों पर भी अत्याचार किया जा रहा था।
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उन्होंने 1885 के ट्रांसवाल लॉ न. 3 के प्रयोग को गलत माना, - क्योंकि भारतीय व्यापारी स्वतंत्र रूप में कहीं भी व्यापार नहीं कर सकते थे और कहीं भी नहीं रह सकते थे।
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इसका विरोध करने के लिए 1000 से अधिक भारतीयों द्वारा हस्ताक्षारित याचिका औपनिवेशिक सेक्रेटरी को दी।
5. ट्रांसवाल सरकार ने 1906 ई. में भारतीयों के खिलाफ एक नया अधिनियम बनाया।
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इस अधिनियम में उपनिवेश की भारतीय जनसंख्या को पंजीकरण के लिए विवश किया गया।
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जोहान्सबर्ग में जन विरोध बैठक की अध्यक्षता करते हुए गांधी सर्वप्रथम विरोध में अपने सिद्धांत सत्याग्रह को व्यवहार में लाये
6. जन विरोध बैठक में शामिल प्रदर्शनकारियों को हिंसा से विरोध न करने को कहा।
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इसके स्थान पर नये कानून की उपेक्षा करने और ऐसा करके सजा भुगतने को तैयार रहने को कहा।
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यह संघर्ष लम्बे समय तक चला और गाँधी सहित हजारों भारतीयों को जेल में डाल दिया गया।
7. कई लोगों द्वारा सजा पाने के बावजूद भी लोगों ने पंजीकरण के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा
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इससे चारों ओर अशांति फैल गयी,
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जिससे अफ्रीकन जनरल जॉन क्रिस्टियान भी भयभीत हो गया।
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वह गाँधी जी के साथ मजबूरी में समझौता करने के लिए तैयार हो गया।
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अफ्रीकन सरकार को भी प्रदर्शनकारियों की कुछ मांगों को स्वीकार करना पड़ा।
8. अफ्रीका में गाँधी की इस सफलता का राज जन लामबंदी और शांतिपूर्ण विरोध था,
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जिसमें पूर्णत: अहिंसा का मार्ग अपनाया गया।
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इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका में उनका सत्याग्रह फलदायी हुआ ।
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यहीं नहीं गाँधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नेतृत्व प्रदान करने की शक्ति का आत्मविश्वास भी मिला।
गाँधी का उदय Part-2
चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद की सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों
· 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के पश्चात् गांधी जी ने कई स्थानीय आंदोलनों में सहयोग दिया. –
· चंपारण सत्याग्रह, खेड़ा सत्याग्रह और अहमदाबाद सत्याग्रह ।
1. चंपारण की सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियाँ-
i.
बिहार के कुछ जिलों में स्थायी बंदोबस्त था।
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चंपारण के बेतिया, रामनगर और मधुबनी स्टेट के तीन मालिक जिले की अधिकांश भूमि का नियंत्रण रखते थे,
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परंतु जमींदारों ने जमीन के प्रत्यक्ष प्रबंधन के स्थान पर अस्थायी अवधि के लिए कुछ धारकों को जमीन किराये पर दे दी।
ii.
यूरोपीय अवधि- धारकों ने कृषि योग्य जमीन के एक बड़े भाग को अपने कब्जे में कर लिया
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यहां अधिक मुनाफे के लिए उन्होंने नील की खेती करना शुरू कर दिया,
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किसानों के लिए अनाज की अपेक्षा अधिक घाटे की खेती थी।
iii.
यूरोपीय बागान मालिकों ने भूमि की जुताई या तो प्रत्यक्ष रूप से या किसान पट्टेदारों के माध्यम से की।
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इस व्यवस्था में पट्टेदार ही सबसे अधिक घाटे में रहते थे।
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1917 में विश्व बाजार में नील की माँग घटने लगी, जिससे पट्टेदार बहुत अधिक प्रभावित हुए।
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कपड़े, कैरोसीन, नमक सब वस्तुएं महंगी हो गई थीं।
iv.
चंपारण के क्षेत्र में 'तीन कठिया' व्यवस्था किसानों के लिए सिरदर्द थी,
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-क्योंकि इसमें एक किसान की प्रति बीघा जमीन का तीन कट्ठा नील की खेती के लिए तय कर दिया जाता था।
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बागान मालिकों ने इस बात पर जोर दिया कि नील की खेती सर्वाधिक उपजाऊ जमीन में होनी चाहिए, जिससे उत्पादन अधिक-से-अधिक हो सके।
v.
नील की खेती के लिए किसानों को जमीन के क्षेत्रफल के आधार पर राशि नियत की गई।
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फसल के उत्पादन के परिमाण के आधार पर नियत होने से किसानों को घाटा होता था, परन्तु मजबूरी में खेती करते थे।
इन सब सामाजिक और राजनीतिक कारणों से किसान आन्दोलन किया गया, गांधी ने इसमें हस्तक्षेप किया।
फलस्वरूप बिहार सरकार ने विचार करने के लिए एक आयोग बनाया, जिसने किसानों के हित में निर्णय किया।
2. खेड़ा की सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ-
i.
खेड़ा के किसान सरकार से टैक्स में छूट की मांग कर रहे थे और वे संगठित हो रहे थे।
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किसानों का कष्ट फसल की बर्बादी और कीमतों में वृद्धि के कारण था।
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किसान ऋण के शिकार हो चुके थे और सरकार उन्हें कर्ज से मुक्ति देने को तैयार नहीं थी।
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1918 में कृषकों का वर्णन एक किसानों के शब्दों में - "हमारे ऊपर पर प्लेग का संकट मंडरा रहा है।
ii.
कुछ लोगों का विचार था कि होमरूल आंदोलन से संबंधित लोगों और गुजरात सभा के सदस्यों ने खेड़ा के किसानों को उकसाया था।
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1918 की बॉम्बे सभा - गाँधी कहा कि खेड़ा आंदोलन में बाहरी लोगों की कोई इसका भूमिका नहीं है।
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इसके पीछे कोई राजनीतिक प्रयोजन नहीं है।
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यह विरोध स्वयं किसानों द्वारा शुरू किया गया है।
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गोधरा में राजनीतिक सम्मेलन के बाद खेड़ा के कुछ किसानों ने अधिक वर्षा होने के संदर्भ में सरकार से कुछ रियायतों के लिए अनुरोध किया, परन्तु इस ओर ध्यान नहीं दिया गया।
iii.
दो स्थानीय नेताओं-मोहनलाल कामेश्वर पांड्या और शेखरलाल पारीख ने किसानों के आंदोलन को भाँपते हुए बाम्बे सरकार से अपील की कि कर देने के लिए किसानों को विवश न किया जाए।
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उन्होंने गुजरात सभा, अहमदाबाद के सदस्यों से किसानों के समर्थ में अपील की।
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यहीं नहीं उन्होंने गाँधी जी को भी चंपारण में संदेश भेजा।
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गाँधी जी ने उन्हें अपनी माँगों पर डटे रहने के लिए कहा।
iv.
गुजरात सभा के अध्यक्ष गाँधी ने बाम्बे सरकार से कुछ मामलों में छूट देने तथा राजस्व की माँग को स्थगित करने की अपील की।
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सकारात्मक प्रतिक्रिया न मिलने पर किसानों को भू-राजस्व देने से मना कर दिया।
v.
सरकार जाँच के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँची कि भू-राजस्व स्थगित करने का कोई कारण नहीं है।
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प्रतिक्रिया के फलस्वरूप स्थानीय राजस्व को रोकने हेतु किसानों के असंतोष और उनके प्रदर्शन का खूब प्रसार किया।
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गाँधी जी ने स्वयं जांच द्वारा पाया कि किसानों की मांग उचित है।
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इस संबंध में सरकार द्वारा आश्वासन न मिलता देख उन्होंने गुजरात सभा की बैठक में सत्याग्रह का सहारा लेने का निर्णय किया, परंतु शीघ्र ही सरकार ने मांगों पर विचार करने का कार्य शुरू कर दिया।
3. अहमदाबाद सत्याग्रह की सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ-
सत्याग्रह आंदोलन अहमदाबाद के मिल मजदूरों के लिए था, जो 1918 में चलाया गया।
i.
इस टेक्साटाइल मिल में कपड़े के उत्पादन में निरन्तर वृद्धि हो रही थी, परंतु 1918-19 में उत्पादन घट गया, क्योंकि - इसके लिए श्रम की बहुत अधिक मांग थी।
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परंतु 1917 में अहमदाबाद में प्लेग फैलने से लोग शहर छोड़ने के लिए विवश हो गये।
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मिल मालिकों ने मजदूरों को रोकने के लिए उनके वेतन का 75 प्रतिशत अधिक बोनस दिया।
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प्लेग समाप्त होते ही फरवरी 1918 में प्लेग बोनस बंद कर दिया गया।
ii.
प्लेग बोनस बंद होने से मजदूर भड़क गए और उनमें असंतोष बढ़ गया।
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वस्तुतः उनकी परेशानी को युद्ध के कारण बढ़ी महंगाई ने बढ़ा दिया था।
iii.
मजदूरों के संतोष के विषय में गुजरात सभा के सचिव ने गाँधी जी को वहां आने का प्रस्ताव भेजा।
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गाँधी ने पूर्व परिचित मिल के मालिक अम्बालाल साराभाई से अनुरोध किया कि वे मजदूरी की दर बढ़ा दे।
iv.
मजदूरों की एक सभा में आकर गाँधी ने मजदूरों से शिकायतों के निपटारे के लिए शांतिपूर्ण समाधान का आग्रह किया।
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गाँधी ने स्थानीय सरकार द्वारा निर्मित पंचायत मण्डल में मजदूरों का प्रतिनिधित्व किया, परन्तु पंचायती प्रक्रिया को न मानते हुए कई ।
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मजदूर हड़ताल पर चले गए और मिल मालिकों ने मिलों में तालाबंदी कर दी।
v.
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए गाँधी ने मजदूरी की तर्कसंगत बढोतरी के लिए सत्याग्रहियों के हस्ताक्षर हेतु एक शपथ मसौदा तैयार किया।
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पर्चा के माध्यम से सत्याग्रह के सिद्धांतों का प्रशिक्षण दिया गया।
vi.
गाँधी ने नैतिक दबाव बनाने के लिए उपवास की घोषणा की, परन्तु शीघ्र ही मिल मालिकों और मजदूरों में मजदूरी वृद्धि को लेकर समझौता हो गया।
Part - 01
Part - 02
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By Vishwajeet Singh