अध्ययन स्रोत
· औपनिवेशिक काल में सम्बन्धित पर्यावरणीय इतिहास लेखन
· पूर्व - औपनिवेशिक काल पर केन्द्रित पर्यावरण सम्बन्धी साहित्य
औपनिवेशिक काल में सम्बन्धित पर्यावरणीय इतिहास लेखन
· इतिहासकार अजय सरकारिया - आदिवासियों तथा राज्य के मध्य पारस्परिक विरोधाभास को स्पष्ट करने की कोशिश
· सर्वप्रथम अजय सरकारिया ने इतिहास लेखन की राज्य नियन्त्रणवादी प्रक्रिया पर अधिक प्रकाश डाला
· वह राज्य तथा आदिवासी राज्यों के मध्य परस्पर आधारित व्यवस्था का अन्वेषण करते हैं।
· इस प्रकार की व्यवस्था में राजस्व अधिकार एवं सत्ता सम्बन्धों के एक मिश्रित ताने-बाने के अन्तर्गत साझा रूप से बँटे हुए थे।
· इतिहासकार शिवराम कृष्णन - 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटिश सरकार द्वारा लाए गए वन-कानून को विभिन्न सामाजिक, आर्थिक व पर्यावरणीय सरोकारों से सम्बन्धित विवाद ने इतना उलझा दिया कि कानून तैयार ही नहीं हो सका।
· उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों पर लागू होने वाले परस्पर विरोधी स्वार्थों की गहन जाँच-पड़ताल की है।
· इनका कहना है कि - प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार जताने वाले अनेक समुदाय थे।
· अतः राज्यों को किसी औपचारिक नीति तक पहुँचने के पहले कई सम्भावनाओं पर विचार करना पड़ता था
· क्योंकि बहुत से निजी स्वार्थ भी इसमें शामिल होते थे, जो नीतिगत मुद्दों को अपने निजी हित में करना चाहते थे।
· रवि राजन - औपनिवेशिक नीति के विद्यमान आन्तरिक विभाजन को समझाने का प्रयास / स्पष्ट रूप से उजागर किया है।
· अन्य पर्यावरणीय इतिहासकारों ने वन-आश्रित समुदाय, पारिस्थितिकी तन्त्र की कार्य-प्रणाली तथा जानवरों के विलोपन सम्बन्धी मुद्दों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
· 1920 से 1950 के मध्य औपनिवेशिक कृषि पारिस्थितिकी सम्बन्धित मुद्दे तथा परिवर्तनशील कृषि व भू-क्षरण से जुड़े मुद्दे थे।
· परिवर्तनशील कृषि के कारण उत्पन्न परेशानियाँ केवल राजस्व हानि तक सीमित नहीं थीं,
· बल्कि इसके केन्द्र में अंग्रेजों के लिए आवश्यक लकड़ी का व्यापार तथा आपूर्ति आदि थे।
· यह समस्या और उग्र होने लगी जब जनसंख्या वृद्धि तथा अत्यधिक पशुचारण के कारण वनों पर दबाव बढ़ने लगा था।
· अतः अंग्रेजों ने एक व्यवस्थित वन-संरक्षण नीति की शुरुआत की।
· उनका तर्क था कि - वन विनाश तथा पर्यावरणीय शुष्कीकरण के बीच सीधा सम्बन्ध था।
· जिस कारण राज्य वन-संरक्षण नीति की परम आवश्यकता थी।
· इस नीति के तहत वन-निवासियों को निष्कासित करने जैसे बहानों से सही ठहराने का प्रयास किया गया,
· जबकि वनों के प्रति औपनिवेशिक नीति मूल रूप से आर्थिक लाभ की दृष्टि से निर्धारित थी।
· इतिहासकार वसंत सब्बरवाल ने उन नीतियों का विश्लेषण किया,
· जिनका पर्यावरण से सम्बन्धित मुद्दों पर किसी-न-किसी रूप में प्रभाव पड़ता है।
· वन-संरक्षण के प्रति उनका आग्रह धीरे-धीरे ही विकसित हुआ और यह विकास पर्यावरण से सम्बन्धित वैज्ञानिक अनुसन्धान में होने वाली प्रगति के समकक्ष रहा है।
· विद्वान दिव्यभानु सिंह और महेश रंगराजन ने मानव तथा पशुओं के पारम्परिक सम्बन्धों पर प्रकाश डाला है।
· इनका कहना है कि - किस प्रकार और क्यों कुछ विशेष प्रकार के जानवरों को सीधे निशाना बनाया गया
· जिसके परिणामस्वरूप उनका विलोपन हो गया।
· इसका मुख्य कारण - कृषि विस्तार की साधारण-सी दिखने वाली प्रक्रिया का दूरगामी परिणाम था कि बड़े जानवरों के निवास का स्थान संकुचित होता गया।
· जानवरों का भोजन प्राप्त करने वाला क्षेत्र जब सिकुड़ा तब वे मानव बस्तियों के पास आने लगे और प्रायः इस प्रकार का सम्पर्क हिंसक गतिविधियों में ही परिवर्तित हुआ।
· मानव-पशुओं का अन्तर्सम्बन्ध तभी संकट में पड़ा, जब दोनों ने एक-दूसरे की पारिस्थितिकीय, सीमाओं का उल्लंघन किया।
पूर्व - औपनिवेशिक काल पर केन्द्रित पर्यावरण सम्बन्धी साहित्य
· भारत में पर्यावरणीय चेतना पर पूर्व औपनिवेशिक काल में विद्वानों ने व्यापक सर्वेक्षण किया है।
· इन विद्वानों ने हाशिए पर स्थित विभिन्न सामाजिक वर्गों, जैसे- पशुचारण समाज, जनजातीय समाज, आखेटक समाज आदि का अध्ययन किया है।
· विद्वान रणबीर चक्रवर्ती - अपनी रचना 'प्रकृति और पर्यावरण' के द्वारा प्राचीनकाल को स्पष्ट किया है।
· जबकि कुछ विद्वानों ने सिंचाई व्यवस्था के निर्माण व रखरखाव में पारम्परिक ग्रामीण समुदाय की भूमिका को उजागर किया है।
· विद्वान डेविड - हार्डीमैन - अपने लेख 'दक्षिण एशिया का पर्यावरण इतिहास' में लिखा है -
· अतीत में भी छोटे बाँध वाले सिंचाई तन्त्र मौजूद थे
· वे समुदाय आधारित नियन्त्रण व्यवस्था के अनुरूप लम्बे समय तक क्रियाशील रहे थे।
· विशेषकर विद्वान हरबंस मुखिया ने अपनी रचना 'भारतीय इतिहास में सामंतवाद' में मानव बस्तियों और सामाजिक संरचनाओं पर पर्यावरणीय कारकों की भूमिका को स्पष्ट किया है।
· इरफान हबीब और बर्टन स्टेन ने अपनी रचना क्रमश: 'भौगोलिक परिदृश्य' तथा 'दक्षिण भारत प्रदेश के कुछ सामान्य उपादान और उसका प्रारम्भिक इतिहास' में मानव-पर्यावरण के अन्तर्सम्बन्धों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है।
· मध्यकालीन भारत के मानव-पर्यावरण अध्ययनों पर एक प्रमुख प्रभाव फ्रांस के अनाल प्रकाशनों का है।
· भारत में इसको लोकप्रिय बनाने में हरबंस मुखिया को मारिस आयमा के साथ मिलकर फ्रांसीसी इतिहासकारों के लेखों का अनुवाद उपलब्ध कराने का श्रेय जाता है।
· भारतीय विद्वान चेतन सिंह की रचना 'पश्चिम हिमालय में पारिस्थितिकी और किसान' में अनाल परम्परा का प्रभाव परिलक्षित होता है।
· उन्होंने पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में पर्यावरण एवं समाज के मध्य सम्बन्धों को स्पष्ट किया है।
· उनका मानना था कि - समाज और उसके भौगोलिक परिदृश्य के बीच परम्परागत और सुस्पष्ट सम्बन्ध थे।
· किसी भी समाज के लिए ऐसी समझ के बिना लम्बे समय तक जीवन्त बने रहना सम्भव नहीं था।
· विद्वान मयंक कुमार - अपने लेख 'मध्यकालीन राजस्थान में पर्यावरण और समाज' में मानव - पर्यावरण पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है।
· उन्होंने इस धारणा पर प्रश्न उठाया है कि - परम्परागत समाज हमेशा ऐसे तरीकों का प्रयोग करते थे, जिनसे प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग हो।
· उन्होंने राजस्थान में पारम्परिक समाजों द्वारा प्रकृति के दोहन के कई उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
· विद्वान रामचन्द्र गुहा अपनी रचना 'दक्षिण एशिया का पर्यावरणीय लेख : स्वरूप, संस्कृति, साम्राज्यवाद' में लिखते हैं कि-
· प्रकृति मौसम, स्थलाकृति, जीव-जन्तु व कीड़े-मकोड़े, वनस्पति और मृदा मानव क्रियाओं व उत्पादकता को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं।
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By Vishwajeet Singh